नवरात्रि के सातवें दिन कालरात्रि माता की पूजा अर्चना की जाती है। माता कालरात्रि, देवी दुर्गा का सातवां स्वरूप मानी जाती हैं। माता का रंग कृष्ण वर्ण यानी काले रंग का होने के कारण इन्हें कालरात्रि कहा जाता है। पुराणों के अनुसार देवी के इस स्वरूप ने चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज सहित कई राक्षसों का वध किया था। चण्ड और मुण्ड का वध करने के कारण माता का नाम चामुंडा पड़ा।
माता कालरात्रि का रूप भयंकर और रूद्र है। माता गर्दभ पर सवार रहती हैं। उनकी चार भुजाएं हैं, उनके एक बाएं हाथ में कटार और दूसरे बाएं हाथ में लोहे का कांटा है। वहीं माताका एक दायां हाथ अभय मुद्रा और दूसरा दायां हाथ वरद मुद्रा में रहता है। माता के गले में विद्युत की तरह चमकने माला है। माता कालरात्रि के हाथ में रक्त से भरा एक पात्र है, क्योंकि रक्तबीज नाम के राक्षस को मारकर माता ने उसके रक्त को एक पात्र में इकट्ठा कर के पी लिया था। माता कालरात्रि का रूप रक्तबीज के वध का प्रतिक है।
माता कालरात्रि की पूजा विधि
नवरात्रि का सातवां दिन "शुक्र ग्रह से सम्बंधित शांति पूजा" के लिए सर्वोत्तम है। सबसे पहले पूजा की चौकी पर काले रंग का कपड़ा बिछाएं। इसके बाद चौकी पर मां कालरात्रि की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। पूजा शुरू करने से पहले कालरात्रि माता को लाल रंग की चूनर ओढ़ाएं। इसके बाद मां को श्रंगार का सामान चढ़ाएं। श्रंगार का सामान चढ़ाने के बाद मां के सामने दिया जलाकर माता के मंत्र का जाप करें।
एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता ।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी ।।
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा ।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी ।।
ध्यान मन्त्र
करालवंदना धोरां मुक्तकेशी चतुर्भुजाम्।
कालरात्रिं करालिंका दिव्यां विद्युतमाला विभूषिताम ।।
दिव्यं लौहवज्र खड्ग वामोघोर्ध्व कराम्बुजाम्।
अभयं वरदां चैव दक्षिणोध्वाघः पार्णिकाम् मम ।।
महामेघ प्रभां श्यामां तक्षा चैव गर्दभारूढ़ा।
घोरदंश कारालास्यां पीनोन्नत पयोधराम् ।।
सुख पप्रसन्न वदना स्मेरान्न सरोरूहाम्।
एवं सचियन्तयेत् कालरात्रिं सर्वकाम् समृध्दिदाम् ।।
स्तोत्र पाठ
हीं कालरात्रि श्री कराली च क्लीं कल्याणी कलावती।
कालमाता कलिदर्पध्नी कमदीश कुपान्विता ।।
कामबीजजपान्दा कमबीजस्वरूपिणी।
कुमतिघ्नी कुलीनर्तिनाशिनी कुल कामिनी ।।
क्लीं हीं श्रीं मन्त्र्वर्णेन कालकण्टकघातिनी।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा ।।
मंत्र के जाप के बाद माता की आरती करें। पूजा खत्म होने के बाद कालरात्रि मां को गुड़ का भोग लगाए।
कालरात्रि माता की कथा
कथा के अनुसार राक्षस शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। इससे चिंतित होकर सभी देवता शिव जी के पास गए। शिव जी ने देवी पार्वती से राक्षसों का वध कर अपने भक्तों की रक्षा करने को कहा। शिव जी की बात मानकर पार्वती जी ने दुर्गा का रूप धारण किया और शुंभ-निशुंभ का वध कर दिया। शुंभ-निशुंभ का वध करने के बाद जैसे ही दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा उसके शरीर से निकले रक्त से लाखों रक्तबीज उत्पन्न हो गए। इसे देख दुर्गा जी ने अपने तेज से कालरात्रि को उत्पन्न किया। इसके बाद जब दुर्गा जी ने रक्तबीज को मारा तो उसके शरीर से निकलने वाले रक्त को कालरात्रि ने अपने मुख में भर लिया और सबका गला काटते हुए रक्तबीज का वध कर दिया।